जब रणनीति बनानी होती है तो एक घटना, एक कहानी के बदले बार-बार होने वाले क्रम पर, घटनाओं के दोहराव की गिनती पर ध्यान दिया जाता है। जब किसी और को रणनीति सिखानी हो तो गिनती और संख्याएँ किसी को याद नहीं रहती। इसलिए दूसरों को सिखाते वक्त अच्छी लगने वाली कहानी सुनाई जाती है। ऐसा हम नहीं कहते, ये “एटॉमिक हैबिट्स” नाम की जानी-मानी किताब लिखने वाले जेम्स क्लियर का कहना है। हाल के दौर में मानवीय मनोविज्ञान और व्यवहार परिवर्तन के बारे में सिखा सकने वाले सबसे जाने माने विद्वानों में से वो एक हैं, इसलिए हमने उनकी बात मान लेना ठीक समझा।
इसका सम्बन्ध दूसरे अध्याय के उनतीसवें श्लोक से था, जिसमें कहा गया है –
आश्चर्यवत्पश्यति कश्चिदेन माश्चर्यवद्वदति तथैव चान्यः।
आश्चर्यवच्चैनमन्यः श्रृणोति श्रुत्वाप्येनं वेद न चैव कश्चित्।।2.29
मोटे तौर पर इस एक श्लोक का अर्थ है, कोई इसे आश्चर्य के समान देखता है, कोई इसके विषय में आश्चर्य की तरह बताता है; सुनने वाला कोई इसे आश्चर्य के जैसा सुनता है और फिर कोई सुनकर भी नहीं जानता।
ऐसा सबसे ज्यादा प्रेरक कथाओं के सम्बन्ध में होगा। हाल में जैसे दिनेश कार्तिक का किस्सा दौड़ता रहा है, उसके बारे में ऐसा कह सकते हैं। कहानियां इतनी वामपंथी सी, बाइनरी में, सिर्फ ब्लैक एंड व्हाइट नहीं होतीं। एक हीरो होगा वो सब अच्छा ही कर रहा होगा, और कोई दूसरा विलन होगा जो सब बुरा ही कर रहा होगा, ऐसा आपने अपने जीवन में, आस पास के लोगों में कभी देखा है क्या? हालाँकि उम्र मेरी भी उतनी तो नहीं कि कहें हमने भी दुनियां देख रखी है, लेकिन पिछले तीन दशकों में इतना तो हमने देख रखा है कि वैवाहिक संबंधों और प्रेम प्रसंगों के मामले में दावे से कह सकते हैं कि ताली एक हाथ से नहीं बजती।
हो सकता है इतना पढ़ने के बाद आपको ऐसे कुछ दूसरे प्रसंग भी याद आ गए हों, क्योंकि हमने गले में गमछे वाला किस्सा भी सुन रखा है। मगर फ़िलहाल हम शराबी हो जाने वाले मुद्दे पर टिके रहेंगे। इस मामले में भारतीय फ़िल्में और टीवी सीरीज आपको तस्वीरें बाइनरी में, स्याह और सफ़ेद में बांटकर दिखायेंगे (क्योंकि वो अधिकतर वामियों की बनायी हुई होती हैं)। मेरी सलाह होती है कि ऐसे मामले समझने के लिए कम से कम “एलीमेंट्री” नाम की शृंखला देख लें। ये विख्यात जासूस शर्लाक होम्स का आज के दौर के हिसाब से किया गया एडाप्टेशन है। मूल पात्र वही हैं लेकिन बहुत से बदलावों के साथ कहानी सुनाई गयी है।
एक बड़ा बदलाव ये है कि शर्लाक होम्स नशेड़ी है, जो अपनी नशे की आदत से उबरने की कोशिश कर रहा है। दूसरा बदलाव ये है कि डॉक्टर वाट्सन पुरुष नहीं बल्कि स्त्री है। इस शृंखला में वो एक सर्जन होती है, जिसकी गलती से किसी मरीज की मृत्यु हो गयी है। अपराधबोध के कारण वो अपना अच्छा खासा काम छोड़कर नशे के शिकार लोगों की उबरने में मदद करने का काम करती है। लन्दन के बदले शेर्लोक “एलीमेंट्री” में न्यू यॉर्क में होता है। उसे लगता है कि शायद जगह बदल लेने से उसकी आदतों पर कुछ असर होगा। आम आदमी से कहीं अधिक बौद्धिक क्षमता वाला ये शर्लाक होम्स जिस तरह बार बार फिसलता है, गिरता है, संभलता है, असल में कुछ वैसा ही होता है।
वामियों की तरह ब्लैक एंड व्हाइट में चीजें देखने पर या तो आपको शराबी अमिताभ बच्चन जैसा रोमांटिक सा दिखेगा, या बिलकुल ही विलन, जो कि होता नहीं। ऐसा ही बलात्कार वाले मामले में भी होता है। वहाँ भी पूरा-पूरा ब्लैक एंड व्हाइट कुछ नहीं होता। सोशल मीडिया पर जब ऐसी बहसें शुरू होती हैं, तो लोग एक पक्ष के समर्थन, दूसरे के विरोध में दिखते हैं। विशेषकर मी टू जैसे ऑनलाइन चले अभियानों के बाद से ऐसा होना बढ़ा है। इस मामले में भी स्याह-सफ़ेद कुछ नहीं होता। सब का सब ग्रे जोन में आता है। अगर अदालत में बैठकर एक दो दिन बलात्कार के मामले की बहसें सुन ली जाएँ तो सिर्फ बलात्कारी अपराधी नहीं लगेगा। वहाँ बैठे, जज, वकील, लोग, सभी शरीफ लगने बंद हो जायेंगे।
स्याह-सफ़ेद में सोचने का नुकसान ये है कि बलात्कारी फिल्मों के रणजीत वाले किरदार जैसा कोई लार टपकाता ठरकी लगता है। जबकि असल में अधिकांश मामलों में बलात्कार का ठरक से कोई लेना देना ही नहीं होता। इसका ठीक उल्टा भी होता है। अगर बैठकर दो चार भी ऐसे मामलों में सुनवाई देख ली जाए तो मामला सुनते ही आप स्त्री को पीड़िता और पुरुष को दोषी मानना भी छोड़ देंगे। फेमिनाज़ियों को भले पूँछ पर पड़े बूट जैसा लगे, लेकिन हर बार अभियोग लगाने वाली पीड़िता और अभियुक्त ही अपराधी नहीं होता। और ये हमें घुमा-फिराकर वापस वहीँ ले आती है जहाँ से हमने बात शुरू की थी।
वैज्ञानिक तरीके से खुद समझना हो तो आंकड़े खुद देखिये, किसी और को समझाना हो तो जबरदस्त उतार चढ़ावों वाली कहानी सुनाइये। किसी और को अपने सोचने का तरीका तय करने देना बौद्धिक गुलामी है, जो शारीरिक गुलामी से भी बुरी होती है। गुलाम तो आप हैं नहीं न?
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