‘भारत भूमि हलाकू और चंगेज को भूल गई तो अनर्थ हो जायेगा।’ ‘मुसलमानों के आने से पूर्व यहाँ कोई चीज व्यवस्थित नहीं थी… मुसलमान आए तो उन्होंने सब बुराइयों का जड़मूल से नाश कर दिया।’ ‘मुसलमानों का सितारा चमका है; दिल्ली भी (उनके) हाथ आएगी, आज नहीं तो कल।’ ‘स्वतंत्र भारत में दो-चार पानीपत की लड़ाइयाँ न लड़ी गई, हल्दीघाटी और थानेश्वर के शानदार युद्ध नहीं हुए तो हम भारतवासियों के लिए चुल्लू भर पानी में डूब मरने की बात है।’ ‘बनाइए नए सिर से सोमनाथ का मंदिर ! महमूद गजनवी की आँखों का काँटा बनिए।’ ‘और आप? आप विश्वास रखिये, वे सब धमकियाँ ही हैं। किसी प्रकार की तैयारी करने की क्या आवश्यकता है?’ ‘गजनवी और गोरी को तैयारी करने दीजिए। आप पृथ्वीराज की भांति क्षमताशील बने रहिए।’ ‘अपनी नीयत के पैमाने पर (से) शत्रु की नीयत नापने की पुरानी परिपाटी न छोड़िए।’ ‘जो आज करना हो, उसे कल पर टालते जाइए।’
नहीं ये सब हम नहीं कह रहे। ये तो श्री ‘संगम’ का लिखा हुआ ‘सोमनाथ पर चढ़ाई’ शीर्षक का एक लख है जो ‘समाज’ (साप्ताहिक, काशी) में दिसम्बर 1947 में निकला था। इस व्यंग के अनेकों अंश बहुत ही सुन्दर थे इसलिए आचार्य रामचंद्र वर्म्मा ने लोकभारती प्रकाशन से आने वाली पुस्तक ‘अच्छी हिन्दी’ में इसका उदाहरण की तरह प्रयोग किया था। हमने 1995 में प्रकाशित इसी किताब के इक्कीसवें संस्करण से ये उदाहरण क्यों ले लिया, इसका अनुमान लगाना तो कोई कठिन नहीं होगा? मई 1951 में सोमनाथ मंदिर का जीर्णोद्धार करके, वो स्वरुप तैयार किया गया जो आज दिखता है। उसकी दीवारों से चिपकाकर भी मस्जिद बनवा दी गयी थी।
गाँधी-नेहरु और उनके शेखुलर कारकूनों का बस चालता तो सोमनाथ मंदिर भी हमारे पास नहीं होता। भारत को बंटवारे के बाद स्वतंत्रता मिलने पर भी दूसरे दर्जे के नागरिकों, यानि हिन्दुओं को कोई स्वतंत्रता मिली थी या नहीं, पता नहीं। अगर मिली होती तो हिन्दुओं के मंदिर तो कम से कम उनके अधिकार में होते! कैसी विडंबना है कि संविधान तो सभी धर्मों के लोगों को अपने धार्मिक स्थलों पर अपनी विधियों से पूजा-उपासना के अधिकार देने की बातें करता है, मगर वास्तविकता में हिन्दुओं को ये अधिकार कभी मिले ही नहीं। आज भी कोई डीएम, को डीसी-डीडीसी कहलाने वाले भूरे साहेब को मंदिरों में हस्तक्षेप करने का अधिकार प्राप्त है।
इससे भी बड़ी विडंबना मीर जाफरों की है। अपने ही संवैधानिक अधिकारों की माँग अगर हम कर लें, तो विदेशियों की फेंकी बोटियों पर पलने वाले कुत्ते, हमपर ही गुर्राते हैं! ये मीर जाफर वाला गुणसूत्र (डीएनए) धारण किये जीव कहते हैं पैसे का घोटाला होगा इसलिए नहीं देना। जात-पात का लफड़ा होगा इसलिए हिन्दुओं को उनके मंदिर नहीं देना। अगर ऐसा ही है तो संविधान से सभी को अपने पूजा स्थलों पर अधिकार वाला वाक्य हटा देते। या फिर इस तर्क से तो बाकि जगहों पर भी घोटाला और जात-पात का लफड़ा है ही, उनसे भी छीन लेते ये अधिकार। तथाकथित धर्मनिरपेक्ष सरकार बहादुर ही मंदिर की व्यवस्था करती, मस्जिदों-चर्चों-गुरुद्वारों की भी? अगर सरकार हिन्दुत्ववादी नहीं है तो सिर्फ मंदिरों के व्यवस्थापक डीएम साहेब क्यों हैं?
काशी विश्वनाथ पर अभी ही सवाल क्यों” जैसा बचकाना प्रश्न पूछने वालों को याद दिला दें कि चुनाव तो गुजरात में हैं। करना ही होता तो अहमदाबाद का नाम कर्णावती करने की बात शुरू होती होती? रुद्रमहालय में जबरन जुल्म ढाकर बनाई गयी, जामी मस्ज़िद या फिर भद्र काली मंदिर की जगह पर कई सर काटकर बनी जामा मस्ज़िद की चर्चा क्यों नहीं होती? असल में वो हिन्दुओं को दूसरे दर्जे का नागरिक माने बैठे हैं, इसलिए हिन्दुओं के अधिकार हिन्दुओं से असंवैधानिक तरीके से छीन लेने के लिए नैसर्गिक न्याय के सिद्धांतों को बूटों तले रौंदकर नरसिम्हा राव वाली खान्ग्रेस सरकार ने 1991 में ही उपासना स्थल (विशेष उपबंध) अधिनियम बनाकर हिन्दुओं को उनके मंदिर वापस देने से मना कर दिया गया था।
जैसे मंदिरों की संपत्ति, उनकी जमीनें इत्यादि कहाँ गयीं, किस काम आयीं, ये आम आदमी के लिए सार्वजनिक जानकारी नहीं होती, वैसे ही एक शिवलिंग मिल भी जाये तो कह देना कि मिला ही नहीं था, कौन सा मुश्किल होगा? फिर कुछ लोग ये भी कहने पहुँच जायंगे कि 8 इंच व्यास के शिवलिंग का मतलब तीन-चार फुट चौड़ा शिवलिंग होगा। कभी देखा है इतना बड़ा शिवलिंग? कहीं हो सकता है इतना बड़ा एक ही पत्थर का इतना बड़ा शिवलिंग? फिर आम आदमी शंका में पड़ जायेगा कि होता तो नहीं ही है। कभी देखा नहीं! आपने इसलिए नहीं देखा क्योंकि तोड़ दिए हम्पी के मंदिरों और उजाड़े गए विजयनगर को आपने नहीं देखा। किस्मत से सोशल मीडिया के आने से एक बदलाव तो हुआ है। तस्वीरें तो देखी होंगी सभी ने!
बाकी याद कर लीजिये कि विजयनगर (हम्पी) के बदाविलिंग मंदिर की जो तस्वीरें आपने देखी थीं, उनमें शिवलिंग कितना बड़ा होता था?
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