कुछ दिन पहले थाने में एक आदमी के खिलाफ FIR दर्ज़ हुई थी। यह आदमी फर्जी ID बनाकर प्रतिष्ठित लोगों को अपशब्द बोलता था। आरोपी की तरफ से 25-30 लोगों ने थाने के सामने प्रदर्शन किया। इन लोगों को हवालात में डाल दिया। इनमें से एक ही पत्रकार है जो यूट्यूब पर काम करता है: SHO मनोज सोनी https://t.co/YLob2Gt0TA pic.twitter.com/4yGUA2vjI5
— ANI_HindiNews (@AHindinews) April 7, 2022
![](https://www.awarenews24.com/wp-content/uploads/2022/04/admin-ajax-e1649349159320.jpg)
इस तस्वीर से भावनाएं आहत हो सकती हैं। हो सकता है कि कुछ लोगों का दर्द छलक आये। संभव है कि कुछ लोग कहें कि भाजपा शासित प्रदेश में पत्रकारों के साथ ऐसा हो रहा है! फासीवाद आ गया जी! लेकिन क्या इससे समस्या सुलझती है? नहीं सुलझती। असल में समस्या की इस पूरे प्रकरण में बात तक नहीं हुई है। क्यों? क्योंकि जब आप कहेंगे कि ये लोग पत्रकार हैं, तो सरकारी मुलाजिम कहेगा, नहीं, ये सिर्फ इन्टरनेट पर जहर की खेती करने वाले #नफरती_चिंटू हैं! और आप कुछ नहीं कर सकते क्योंकि इनमें से ज्यादातर के पास ऐसा कोई कागज़ नही जो ये साबित कर सकता हो कि सीधी जिला (मध्यप्रदेश) के ये नंगे खड़े लोग पत्रकार हैं।
असली समस्या ये है, और इसपर कोई बात नहीं होती। इसका नतीजा क्या होता है? इसका नतीजा ये होता है कि बिहार में कहीं कोई छोटे चैनल का पत्रकार मारा जाता है तो आपको खबर नहीं होती। बंगाल में, राजस्थान में, या केरल में पत्रकारों के साथ क्या होता है ये पता ही नहीं चलता। बंगाल, केरल या राजस्थान भाजपा शासित प्रदेश नहीं हैं, इसलिए वहाँ कुछ हो तो शेखुलरिज्म को खतरा नहीं होता न? ऐसा ही तब भी होता है जब किसी छोटे चैनल का पत्रकार तथाकथित किसान आन्दोलन में पीट-पीट कर मार दिया जाता है। कोई उसके लिए लाखों का मुआवजा नहीं मांगता। उत्तर प्रदेश चुनाव भी बीत चुके हैं तो कोई उसके परिवार से अब मिलने की मेहनत नहीं करेगा।
आपने डॉक्टर देखे होंगे, सीए देखे होंगे, वकील भी। ये सभी पेशे होते हैं। बिलकुल वैसे ही जैसे पत्रकारिता एक पेशा होता है। बस एक छोटा सा अंतर है। डॉक्टर का निबंधन होता है। उसके पास डॉक्टर होने की एक आईडी, एक परिचय पत्र है। ऐसे ही वकील, या सीए के पास भी होगा। वो किसी संस्था में नौकरी करते हैं या नहीं, इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता। अगर आप किसी बड़ी संस्था में नौकरी नहीं करते तो आप निबंधित पत्रकार नहीं होते। बड़ी संस्था में काम करते भी हैं तो भी निबंधित होंगे, आपके पास मान्यता प्राप्त आईडी होगी इसकी कोई गारंटी नहीं है। सभी पत्रकारों के पास वो आईडी नहीं होती। उनकी पहचान बस वो कैमरा-माइक है। ज्यादा से ज्यादा मोटरसाइकिल-स्कूटी पर लिखा हुआ प्रेस।
संगठित और असंगठित क्षेत्र के मजदूरों में एक अंतर ये भी हो सकता है कि संगठित क्षेत्र में काम करने वालों के पास पेंशन-बीमा जैसी सुविधाएँ होती हैं। ये अधिकांश पत्रकारों के पास नहीं होता। कोई दुर्घटना होने पर वो घायल हो जाए तो उसका कोई मेडिकल इंश्योरेंस नहीं जो इलाज का खर्च दे। उसे अपनी जेब से भरना है। बूढ़े होकर रिटायर होने पर पेंशन? वो क्या होता है? जिला स्तर पर काम करने वाले बड़े अख़बारों के पत्रकारों में भी शर्म के मारे अपनी सैलरी अकाउंट नहीं दिखायेंगे। एक तो इस बात पर सकुचायेंगे कि तनख्वाह बहुत कम है। ऊपर से वो भी समय से आती है, या किसी महीने बारह तो किसी महीने बाईस तारिख को मिलेगी, ये भी वो दावे के साथ नहीं बता सकते। यकीन न हो तो किसी भी जिले के पांच पत्रकारों का सैलरी अकाउंट देख लीजिये।
तो यहाँ असली समस्या ये है ही नहीं कि पत्रकारों को नंगा कर दिया गया है। समस्या ये है कि दुनिया जब प्रिंट से इलेक्ट्रॉनिक, और डिजिटल, ब्लॉग-यूट्यूब के युग तक पहुँच गयी तो जो सरकारी व्यवस्था पत्रकारों के निबंधन के लिए बनायीं गयी थी, वो बीस साल पहले के ही युग में अटकी रही। आप चाहे लाख चिल्ला लें कि ये पत्रकार थे, अदालत में इन्हें इन्टरनेट पर अफवाह फ़ैलाने वाला बताया जायेगा तो कोई तरीका नहीं इन्हें कुछ और साबित करने का।
जो राज्य और केंद्र स्तर पर आईपीआरडी जैसे विभाग हैं, जो जिले में बैठा सरकारी अधिकारी – डीपीआरओ है, उनसे पूछ लीजिये कि क्या विधि है पत्रकारों के निबंधन की? अगर डॉक्टर-वकील इत्यादि का निबंधन करने के लिए उनकी पढ़ाई के सर्टिफिकेट की सत्यापित प्रति जमा करवाई जाती है, कोई जांच होती है, तो कोई विधि यूट्यूब चैनल चलाने वाले की भी होगी? कोई विधि ब्लॉग लिखने वालों, न्यूज़ पोर्टल-वेबसाइट चलाने वालों के निबंधन की भी होगी? कहीं लिखी गयी होगी, क्योंकि सरकारी है तो कागज तो होंगे ही! मांग कर देख लीजिये किसी से कागज। ये जो निबंधन नहीं है इसी वजह से ये पत्रकार नहीं बल्कि अफवाहबाज हैं।
इसके पीछे की कहानी यूँ है कि कुख्यात वामपंथी “कलाकार” नीरज कुंदेर ने “अनुराग मिश्रा” नाम से एक फर्जी आईडी बनाई। सीधी के विधायक केदारनाथ शुक्ला एवं उनके बेटे गुरुदत्त शरण शुक्ला के विरुद्ध गाली-गलौच करने के लिए उस आईडी का प्रयोग होता था। वामपंथियों का नौटंकी ग्रुप इप्टा नीरज कुंदेर की गिरफ़्तारी का विरोध कर रहा है। तस्वीर में एक यू-ट्यूबर (जिसपर पहले से भी मुकदमा है) और बाकि के नौटंकी वाले ही हैं।
बाकि पुलिस इनके साथ जो चाहे कर सकती है। जब पत्रकार हैं ही नहीं तो इनको पीटो-मारो, नंगा सड़कों पर घुमाओ, इससे “अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता” खतरे में नहीं आती है।