रश्मिरथी का एक हिस्सा अक्सर विद्यालयों में पढ़ाया जाता है। जो पढ़ाया जाता है, उस हिस्से में श्री कृष्ण जाकर कौरवों के दरबार में अंतिम बार निवेदन कर रहे होते हैं कि आधा राज्य नहीं तो पाँच ग्राम ही दे दो। उन पाँच गावों में पांडव रह लेंगे, परिजनों से ही युद्ध की स्थिति नहीं बनेगी। दुर्योधन वो भी नहीं देना चाहता था, उल्टा उसने श्री कृष्ण को ही बंदी बनाने का प्रयास किया और परिणाम – महाभारत का युद्ध।
असल में महाभारत का युद्ध केवल इस घटना का परिणाम कभी नहीं था। अधिक से अधिक इसे अंग्रेजी की कहावत वाला “लास्ट स्ट्रॉ टू ब्रेक द कैमल्स बैक” कह सकते हैं। जैसा कि कुछ धूप में बाल सफेद करके आ गए अपरिपक्व शुगर फ्री पीढ़ी वाले बताते हैं, वैसे महाभारत का युद्ध किसी स्त्री के कारण भी नहीं हुआ था। महाभारत का युद्ध उसी दिन तय हो गया था जब भीम को विष देकर नदी में फेंकने के बाद भी, दुर्योधन को दण्डित नहीं किया गया।
कुछ दूसरे लोग जो हर बात को “मोदी जी ने किया है तो ठीक ही होगा” की ही तरह, अकारण ही पुरखों का किया हुआ था तो ठीक ही होगा बताने वाले होते हैं, वो इस अंतिम घटना के लिए कहने लगते हैं कि श्री कृष्ण को तो पहले ही पता था जी! वो तो सब जानते थे जी! कौरवों के दरबार में जाना तो उनकी लीला थी जी! जबकि असल में महाभारत की कथाओं के माध्यम से केवल ये नहीं पता चालता कि क्या करना चाहिए, बल्कि ये भी बताया गया है कि क्या नहीं करना।
भीम को विष देने, अर्जुन से अकारण इर्ष्या, लाक्षागृह की आग, वनवास, द्युत, द्रौपदी चीरहरण, फिर वनवास-अज्ञातवास, ये सभी वो घटनाएं थीं, जिनका तत्क्षण प्रतिरोध होना चाहिए था। इनमें से हरेक महाभारत के युद्ध का आरंभ ही माना जाना चाहिए। शत्रु को आपसे बैर रखने के लिए कोई कारण नहीं चाहिए। आपका संसार में होना ही उसकी इर्ष्या के लिए प्रयाप्त इंधन है। शुरू में इस समस्या का निराकरण किया जाता तो मामला अधिक से अधिक सौ कौरवों तक का रहता। रोग को बढ़ने दिया तो महाभारत का युद्ध हुआ और पूरे आर्यावर्त पर प्रभाव पड़ा।
जिन्हें क्रिकेट में रूचि हो, और इस तरीके से आउट किये जाने पर आपत्ति हो, वो बिलकुल कर्ण जैसे ही हैं। अपनी बारी आते ही कर्ण को धर्म याद आने लगता है। ध्यान रखिये कि धर्म केवल धार्मिक मनुष्यों के लिए होता है। सब धान बाईस पसेरी का नियम लगाकर सबपर एक सी नीतियां लागू करना मूर्खता होती है। भारतीय समाज में शत्रुबोध की जो कमी है, वो इसी लिए है क्योंकि जो सही था वो या तो बताया नहीं जाता, या अधूरा “अश्वत्थामा मर गया” की तरह बताया जाता है।
आने वाली पीढ़ियों में शत्रुबोध जागृत रहे, कौन शत्रु है उसे पहचान कर, उसके प्रति कोई ममता-सहिष्णुता न बरती जाए, इसके लिए कविताएँ पढ़ें, तो सही हिस्सों के चयन का भी ध्यान रखें। विदेशियों की फेंकी बोटियों पर पलने वाल किसी वामी टुकड़ाखोर ने जो पाठ्यक्रम में डाल दिया, वही पढ़ते रहना जरूरी क्यों है? क्षमा उसी को शोभा देती है जिसके पास गरल हो, जो दांतों के बिना, विष से विहीन, विनीत, सरल सा हो, उसकी क्षमा में और भयभीत होकर भाग खड़े होने में क्या अंतर?
बडे पापी हुए जो ताज मांगा,
किया अन्याय; अपना राज मांगा।
नहीं धर्मार्थ वे क्यों हारते हैं,
अधी हैं, शत्रु को क्यों मारते हैं ?
हमीं धर्मार्थ क्या दहते रहेंगे ?
सभी कुछ मौन हो सहते रहेंगे ?
कि देंगे धर्म को बल अन्य जन भी ?
तजेंगे क्रूरता-छल अन्य जन भी ?
न दी क्या यातना इन कौरवों ने ?
किया क्या-क्या न निर्घिन कौरवों ने ?
मगर, तेरे लिए सब धर्म ही था,
दुहित निज मित्र का, सत्कर्म ही था।
किये का जब उपस्थित फल हुआ है,
ग्रसित अभिशाप से सम्बल हुआ है,
चला है खोजने तू धर्म रण में,
मृषा किल्विष बताने अन्य जन में।
शिथिल कर पार्थ ! किंचित् भी न मन तू।
न धर्माधर्म में पड भीरु बन तू।
कड़ा कर वक्ष को, शर मार इसको,
चढ़ा शायक तुरत संहार इसको।