करीब-करीब 1950 के लगभग जब गीता प्रेस ने रामचरितमानस छापा, तो उस संस्करण की विशेष बात ये थी कि उसमें पाठ की विधि भी आने लगी। इस संस्करण में नवाह्नपारायण के विश्राम थे। आम आदमी जो पारिवारिक परम्परा, या गुरु-शिष्य परम्परा से इसे नहीं भी जानता था, उसे भी पता चलने लगा कि एक बार में कितना हिस्सा पढ़ना होता है, कहाँ रुकना होता है। इससे रामचरितमानस का पाठ करने वालों की संख्या बढ़ गयी। तकनीक (जैसे प्रिंटिंग प्रेस) से जो लाभ होते हैं, ये उनमें से एक था।
इसका एक दूसरा कारण ये भी था कि गीता प्रेस अपनी पुस्तकों को छोटे शहर-कस्बों तक भी पहुंचा सकती थी। इसके बाद सही प्रिंट होने का गीता प्रेस का आग्रह इतना अधिक था कि आज आप लाख प्रयास करें तो भी गीता प्रेस की पुस्तकों में वर्तनी-व्याकरण इत्यादि का दोष निकालना कठिन है। अंतिम बात उनकी पुस्तकों का मूल्य भी था। ये आज भी इतना कम होता है कि एक मध्यम वर्गीय भारतीय को इन्हें क्रय करने में कष्ट नहीं होता। ले-दे के एक दोष गिनाया जा सकता है कि आज जो हिन्दी आम लोग प्रयोग में लाते हैं, ये उसकी तुलना में कहीं शुद्ध हिंदी में लिखी गयी है। कभी कभी इसके कारण कुछ लोगों को शब्दों का अर्थ समझने में कठिनाई हो सकती है।
अब सवाल है कि जब पूजा का नाम ही दुर्गा पूजा है, देवी दुर्गा की उपासना होती है तो इस समय लोग रामचरितमानस पढ़ते ही क्यों हैं? इसका जवाब विस्तार से बांग्ला में लिखी गयी “कृतिवास रामायण” से मिल जाता है। उसमें श्री राम द्वारा देवी दुर्गा की उपासना का वर्णन है। रावण से युद्ध करने से पहले जिस काल में उन्होंने ये पूजा की, वो देवी के सुप्तावस्था में होने का काल था। सहायता के लिए असमय उठा देने के कारण शारदीय नवरात्र को “अकाल बोधन” भी कहते हैं। इसी कृतिवास रामायण के आधार पर बाद में “राम की शक्ति पूजा” नाम की कविता भी लिखी गई। हिंदी साहित्य और शब्दों-वर्तनी का ज्ञान अगर मेरे जितना कम हो, तो आप “राम की शक्तिपूजा” पढ़कर ज्ञान थोड़ा बढ़ा सकते हैं।
चूँकि श्री राम ने शारदीय नवरात्र की उपासना आरंभ की थी इसलिए दुर्गा पूजा के विसर्जन में इसी कारण “जय श्री राम” का उद्घोष भी सुनाई दे जाता है। इस उद्घोष का उद्भव कैसे हुआ ये पता नहीं होने के कारण धूप में बाल पकाकर आ गए कुछ काले कौवे दुर्गा पूजा में “जय श्री राम” का उद्घोष सुनकर अकारण ही दुखी होने लगते हैं। “जय श्री राम” से उनके कुछ दूसरे धूर्त कुटुम्बियों की शिकायत ये होती है कि हम तो “सीता-राम” कहने वाले हैं जी! स्त्री के सम्मान में हम तो सीता का नाम लेंगे जी!
ये भी एक धूर्तता से अधिक कुछ नहीं। सोचकर देखिये कि आप आम तौर पर बोलते कैसे हैं? क्या शंकर, शिव, इंद्र, वरुण इत्यादि के नाम को श्री लगाकर बोलने की आदत है? क्यों भई? देवताओं के नाम में श्री क्यों नहीं लगा रहे? भगवान विष्णु की बात करते समय तो बड़े आराम से “श्री हरी” कह देते हैं! ऐसा आप इसलिए करते हैं क्योंकि देवी लक्ष्मी का एक नाम श्री होता है। भगवान विष्णु की पत्नी का नाम आप उनके आगे लगा रहे होते हैं, शिव-ब्रह्मा आदि के आगे नहीं लगाते। हिन्दू विवाह में स्त्री को देवी लक्ष्मी और पुरुष को विष्णु स्वरुप माना जाता है। इसलिए विवाहित लोगों का नाम सम्मान के साथ लिया जाये तो आगे “श्री” जोड़ा जाता है।
श्री राम की चर्चा में आगे निकलने के बदले वापस रामचरितमानस पर आते हैं। ये जो गीता प्रेस वाली पुस्तक आती है, उसमें एक रामशलाका नामक चौकोर, खांचे वाला यंत्र बना होता है। जैसे कभी कभी सड़क के किनारे कोई ज्योतिषी तोते को लेकर बैठा होता है, और जो पन्ना तोता निकाले, उसके आधार पर जातक का भविष्य बताता है, कुछ वैसे ही रामशलाका का प्रयोग होता है। भगवान श्री राम को याद करके अपना प्रश्न सोचिये और आँख बंद करके किसी भी खांचे पर ऊँगली रख दीजिये। उस खांचे में जो लिखा है उसे कहीं लिख लीजिये।
अब उससे नौ खांचे आगे बढ़िये और वहाँ जो लिखा है उसे लिखिए। इसी तरह नौ-नौ कोष्ठक आगे बढ़ते जाना है। थोड़ी ही देर में आपको अपने लिखे हुए में कोई न कोई चौपाई दिखने लगेगी। रामशलाका से कुल नौ चौपाइयाँ बनती हैं, जिनके स्थान और अर्थ में प्रश्न का उत्तर छुपा होता है।
हो सकता है रामचरितमानस कुछ लोगों के घर में कहीं लाल कपड़े में लपेटकर अगरबत्ती दिखाने के लिए रखी हो। भाग्य जानने में तो करीब-करीब सभी की रूचि होती ही है। तो प्रश्न सूझ गया हो तो उसी का उत्तर देखने के लिए रामचरितमानस निकाल लीजिये। पहले से घर में न हो तो आपके शहर के रेलवे स्टेशन पर गीता प्रेस की दुकान होगी ही। कई पूजा पाठ के सामान की दुकानों में भी गीता प्रेस वाली मिल जायेगी। मूल्य भी ज्यादा नहीं। केवल लाने में जो आलस्य है, उतनी ही बाधा है। दुर्गा सप्तशती के उच्चारण में दोष न हो जाए, इस डर से पढ़ नहीं पा रहे तो रामचरितमानस ही निकाल लीजिये! भाग्य देखने के बहाने सही, दो-चार चौपाइयाँ तो पढ़ ही लेंगे।