1994 में एक ऐतिहासिक शोध पत्र में B12 नामक एंटीबॉडी की खोज की गई थी, जो एक एचआईवी संक्रमित व्यक्ति से अलग की गई थी। अध्ययन में पाया गया कि जहाँ संक्रमित व्यक्तियों से लिए गए प्लाज़्मा में मौजूद अरबों एंटीबॉडीज़ में से केवल कुछ ही वायरस को निष्क्रिय कर पाते थे, वहीं B12 अकेले ही 12 में से 8 वायरस को निष्क्रिय करने में सक्षम था—वह भी सामान्य प्लाज़्मा एंटीबॉडी की तुलना में बहुत कम मात्रा में।
इसके बाद अन्य ऐसी एंटीबॉडीज़ की पहचान हुई, जो बेहद कम सांद्रता में एचआईवी के विभिन्न प्रकारों को निष्क्रिय करने की क्षमता रखती थीं। इन्हें ब्रॉडली न्यूट्रलाइजिंग एंटीबॉडीज़ (BNABs) कहा गया। यह खोज उत्साहजनक थी क्योंकि पारंपरिक एंटीबॉडीज़ एचआईवी के खिलाफ काफी हद तक अप्रभावी साबित हो रही थीं। उम्मीद जगी कि BNABs एक दिन एचआईवी महामारी को खत्म करने में मदद कर सकती हैं।
चुनौतियाँ और सीमाएँ
हालाँकि, शुरुआती उम्मीदों के बावजूद कई चुनौतियाँ सामने आईं।
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एचआईवी की जेनेटिक विविधता (genetic variation): एक ही रोगी के शरीर में अनगिनत वायरस वेरिएंट मौजूद रहते हैं। ऐसे में कोई भी एक एंटीबॉडी सभी को निष्क्रिय नहीं कर सकती। 
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वायरस का “मूक जलाशय” (latent reservoir): एचआईवी कई कोशिकाओं में बिना नया वायरस बनाए चुपचाप छिपा रह सकता है। BNABs केवल उन वायरस कणों पर असर डालते हैं जो कोशिकाओं से बाहर निकलते हैं। छिपे हुए वायरस से निपटने के लिए बहुत लंबे समय तक एंटीबॉडी उपचार जारी रखना पड़ सकता है। 
संभावित समाधान
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एंटीबॉडी कॉकटेल (Cocktail of BNABs): अलग-अलग BNABs को मिलाकर दिया जाए ताकि वायरस के पास बचने की गुंजाइश कम हो। 
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वैक्सीन रणनीति: शरीर को खुद ऐसे एंटीबॉडी बनाने के लिए प्रशिक्षित किया जाए। हालाँकि, एचआईवी से संक्रमित केवल कुछ लोग ही स्वाभाविक रूप से BNABs विकसित कर पाते हैं। 
BNABs खास इसलिए हैं क्योंकि ये वायरस के उन हिस्सों को निशाना बनाते हैं जिन्हें बदले बिना वायरस जीवित नहीं रह सकता। जैसे कि CD4 रिसेप्टर बाइंडिंग साइट, जिसका उपयोग वायरस कोशिकाओं को संक्रमित करने में करता है।
हालिया भारतीय शोध
फरीदाबाद स्थित ट्रांसलेशनल हेल्थ साइंस एंड टेक्नोलॉजी इंस्टीट्यूट के प्रो. जयंत भट्टाचार्य और उनकी टीम ने एक नया अध्ययन किया।
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उन्होंने भारत और दक्षिण अफ्रीका के एचआईवी वेरिएंट्स पर दुनिया के 14 सबसे प्रभावी BNABs का परीक्षण किया। 
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पाया गया कि भारतीय उपभेद (strains) विशेष रूप से V3 glycan targeting antibodies से सबसे प्रभावी ढंग से निष्क्रिय होते हैं। 
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CD4 बाइंडिंग साइट वाले एंटीबॉडी भी असरदार थे, लेकिन V1/V2-एपेक्स को निशाना बनाने वाले एंटीबॉडी भारतीय उपभेदों पर कमज़ोर साबित हुए। 
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शोधकर्ताओं ने तीन एंटीबॉडी—BG18, N6 और PGDM1400—का कॉकटेल सुझाया, जो भारतीय एचआईवी-1 उपभेदों के बड़े हिस्से को निष्क्रिय करने में सक्षम हो सकता है। 
महत्वपूर्ण निष्कर्ष
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भारत और दक्षिण अफ्रीका के वायरस उपभेदों में एंटीबॉडीज़ की प्रभावशीलता अलग-अलग पाई गई। 
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ये अंतर वायरस के स्पाइक प्रोटीन में सूक्ष्म बदलावों के कारण हैं। 
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इसका मतलब है कि हर क्षेत्र में एचआईवी की रोकथाम और उपचार रणनीति अलग ढंग से तैयार करनी होगी। 
प्रो. भट्टाचार्य का कहना है कि यह अध्ययन इस दिशा में महत्वपूर्ण संकेत देता है कि क्षेत्र-विशेष रणनीतियाँ अपनानी होंगी। इसमें चयनित एंटीबॉडी कॉकटेल से निष्क्रिय टीकाकरण (Passive immunization) या ऐसी वैक्सीन डिज़ाइन शामिल हो सकती हैं जो व्यापक और मज़बूत एंटीबॉडी प्रतिक्रियाएँ उत्पन्न करें।
निष्कर्ष
यह अध्ययन बताता है कि एचआईवी की असाधारण जेनेटिक विविधता के कारण एक ही उपचार या वैक्सीन दुनिया भर में समान रूप से कारगर नहीं हो सकती। क्षेत्रीय स्तर पर किए गए शोध ही यह सुनिश्चित करेंगे कि विकसित किए गए एंटीबॉडी कॉकटेल और वैक्सीन वास्तव में वैश्विक स्तर पर प्रभावी साबित हों।

 
 