समीक्षक – कामना दीक्षित
प्रेम कहानियों का अंजाम क्या होगा, कौन जानता है?सफलता – असफलता कौन जानता है? प्रेमी मिलेंगे या बिछड़ेंगे? कौन जानता है?
प्रेम किसे क्या बनाकर छोड़ेगा, कौन जानता है? ये उपन्यास भी पढ़ कर सारे प्रश्नों के उत्तर में ‘क्या जाने’ का भाव ही आता है। कसप यानी ” क्या जाने”।
उपन्यास की भाषा : कुमाउँनी भाषा, इसकी सुंदरता बढ़ाती है, हालांकि थोड़ी दुरूह है, पर लेखक ने इसके लिये कुमाउँनी हिंदी के विशिष्ट प्रयोगों को भी समझा दिया है।
आँचलिक भाषाएँ कितनी मीठी होती है न!! बोलने के साथ-साथ साहित्य में जब इन भाषाओं का प्रयोग होने लगा तब से साहित्य थोड़ा और मुखर हो गया शहर से दूर देहात के लोगों के लिए , पाठक इससे जुड़ते गए।
आंचलिकता को पन्नों पर उकेर देने में ,रेणु का कोई जवाब नहीं , ” मैला आँचल ” इसका साक्ष्य है।
लेकिन जब हम किसी पहाड़ी भाषा की तरफ मुड़ते है, तो वो बोलियां भी अमूमन खींच लेती है अपनी मिठास से।
लेखक: मनोहर श्याम जोशी,जिन लोगों ने साहित्य में इन्हें नहीं पढ़ा या इनके बारे में नहीं सुना होगा, वे भी इनसे अछूते नहीं है। पटकथा लेखन में प्रमुख स्थान रहा है इनका।” बुनियाद ” सीरियल तो याद होगा ही,दूरदर्शन पर प्रसारित होता था,इन्ही की लेखनी रही है उन पात्रों के पीछे।
कहानी : लेखक की पत्नी को शौक था, प्रेम कहानियों का,और लेखक ने एक अलग ही प्रेम कहानी ‘ कसप’ के रूप में रच डाली। अब ये सुखद रहा,या दुखद वो तो पढ़ने के बाद पता चलता है। अगर ऐसा तोहफ़ा हर कोई अपनी पत्नी को देने लगे तो हिंदी साहित्य धनी हो जाएगा इस विधा में।
जब पात्रों की बात करेंगे तो यहाँ पात्र अनेक है, जैसे एक लव-स्टोरी वाले फिल्मो में होता है, नायक-नायिका, भरा-पूरा परिवार, रिश्तेदारों की एक पूरी जमघट,एक पूरा शहर ,जो उन्हें हर सीन में घूरता रहता है। लोकेशन भी लव-स्टोरी के अनुकूल है ,अल्मोड़ा और नैनीताल के पूरे दृश्य दर्ज है ।
लेकिन कहानी पूरी तरह से आधारित है नायिका ‘बेबी ‘ पर , हाँ नायक ‘देवीदत्त उर्फ डी.डी ’ की उपस्थिति की वजह से थोड़ा बहुत ध्यान उसकी तरफ भी जाता है। लेखक ने उसे ‛सर्वथा-सर्वथा उपेक्षणीय’ की संज्ञा से नवाज भी दिया है। कुल मिलाकर जोशी जी की नायिकाएं ,नायकों पर भारी पड़ती हैं, अधिकतर कहानियों में। यहाँ भी कुछ कुछ ऐसा ही हुआ है। कही- कही कहानी की इंटेंसिटी काफी ज्यादा लगती है, किताबों में इस तरह भावनाओं को तीव्रता के साथ व्यक्त करना आसान नहीं होता। फ़िल्मों के सीन पर्दे पर घट रहें होते हैं और दर्शक बंध जाते हैं, परन्तु किताब अगर ऐसा करने में सक्षम हो जाये तो यकीनन लेखक की कलम में इश्क़ होता है। यह उपन्यास एक पल में उदास भी करेगी ,तो एक पल में रोमांचित भी । नायक के साथ पहली बार टकराना, दोनों की नोक-झोंक होना, शादी वाले घर के बीच एक अलग कहानी का धीरे-धीरे बढ़ना, परिवार का बीच में आना, नायक की सरेआम पूरे शहर के सामने पिटाई, नायक का शहर छोड़ कर जाना,चिट्ठीयों का भेजा जाना, नायिका के तरफ से उसके पिता द्वारा लगातार नायक को पत्रों का जवाब दिया जाना, ये सब कुछ बातें इस उपन्यास को बाकियों से अलग रखती है।
हां, शास्त्री जी (नायिका के पिता) भी इस उपन्यास में कहानी को मनोवैज्ञानिक टच देते हैं। जब से इनकी एंट्री होती है, पढ़ने वाले को लगने लगता है कि ये सही पात्र मिले हैं कहानी में,ये शायद अपनी बेटी का प्रेम अधूरा न रखेंगे। लेकिन फिल्मों की तरह आधे उपन्यास में क्लाइमेक्स भी जबरदस्त आता है। प्रतिकूल परिस्थिति जब अनुकूल बन जाती है, तो क्या सबकुछ समेटा जा सकता है? स्वाभिमान जब प्रेम से टकराता है ,तो किसकी जीत होती है? सारे सवाल उठेंगे ,जैसे-जैसे आप इसे खत्म करेंगे,और ये तो आप पढ़ने के बाद ही समझ पाएंगे,कि क्यों अक्सर प्रेम कहानियों में ‛कसप’ को रेफरेंस लिया जाता रहा है।
कुल मिलाकर ‘कसप’ हिंदी साहित्य के कुछेक रोमानी उपन्यासों में से एक है, और इसे लगातार पढ़े जाना चाहिए ।
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