हो सकता है “काशी का अस्सी” पढने वालों ने भी यही सवाल सोचा हो। भाषा की शुचिता, या इलाके की मिटटी की खुशबु ? शायद फणीश्वर नाथ ‘रेणु’ की “मैला आँचल” पढ़ते समय भी कुछ लोग ऐसा सोचते होंगे। मगर जब आज “नयी वाली हिंदी” की बातें होने लगी हैं, तो स्थानीय प्रभाव से अछूते लेखक भला कब तक बनावटी भाषा में लिखेंगे ? साहित्य क्यों एक अभिजात्य वर्ग की अलंकार युक्त भाषा में ही रचा जाए ? भगवानदास मोरवाल मेवात के इलाके के हैं, दिल्ली के ठीक बाहर हरियाणा का मेवात का इलाका शुद्धतावादियों की हिंदी का तो बिलकुल नहीं है।

धो पोंछ कर चमकाई गई किसी बनावटी भाषा में वो मेवात की बात नहीं कर रहे होते। उनकी किताब “हलाला” के चरित्र मेवात के ही लगते हैं, कहीं से आयातित अभिजात्य नहीं लगते।

स्थानीय शब्दों को, मेवात की भाषा को, शराफ़त का लबादा ओढ़ा कर उन्होंने बाजार के लिए तैयार नहीं किया है। इसके नतीजे भी आश्चर्यजनक रहे। फ़रवरी 2017 के पटना पुस्तक मेले में मेवात से करीब हज़ार किलोमीटर दूर, “हलाला” वाणी प्रकाशन की सबसे ज्यादा बिकने वाली रही। बिहार में मेवात वाली हिंदी की ये किताब बेस्ट सेलर की लिस्ट में ना आती तो मेरा ध्यान भी इसपर नहीं जाता।

 

सबसे पहले तो “हलाला” ये वहम तोड़ देती है कि केवल मुस्लिम लेखक ही मुसलमानों के बारे में लिखते हैं। आबादी के हिसाब से देखें तो आज मेवात का इलाका ऐसा है कि हिन्दुओं-मुसलामानों की जिन्दगी, रहन सहन, व्यापार, त्यौहार सबमें एक दुसरे से गुंथी हुई मिलेगी। भगवानदास मोरवाल को कोई अलग से जीवन पर शोध कर के लिखने की जरूरत नहीं पड़ी होगी। कई बार दार्जिलिंग, देहरादून के लोगों को दिल्ली जैसे शहरों में आने पर पता चलता है कि वो क्या छोड़ आये हैं। वैसे ही स्थानीय लोग मेवात की जिन चीज़ों को रोज़ की चीज़ों को रोज़ की बात समझते हैं, उन्हें मोरवाल ने एक अलग नज़रिए से दिखा दिया है।

ये उपन्यास मेवात के सीधे सादे कस्बों-गावों के इलाकों में रहने वालों की कहानी है। चरित्रों की कई परतें नहीं होती और बड़ी आसानी से पन्नों के साथ वो खुलते जाते हैं। अबूझ पहेलियों जैसे चरित्र नहीं, विस्मयकारी घटनाएँ भी नहीं है, शायद सरल होना भी इस किताब की विशेषता है। “हलाला” कहीं भी बोझिल नहीं, आप लेखक को झेल नहीं रहे होते, पन्ने अपने आप पलटते जाते हैं। “हलाला” एक गुस्से में लिए गए तलाक की कहानी है। तीन तलाक की बात भी कुछ ऐसी थी कि शौहर-बीवी के बीच बात आई गयी हो जाती। किसी तरह एक मौलवी को इसकी खबर लग जाती है। उसके बाद जो होता है उसपे आपको हंसी भी आएगी, रोना भी आयेगा।

 

हाल के दौर में तीन तलाक और हलाला जैसे मुद्दे चर्चा का विषय भी रहे हैं। ऐसे में इस मुद्दे को टीवी की कर्कश बहसों से बाहर, एक घटना की शक्ल में देखना हो तो भगवानदास मोरवाल की “हलाला” पढ़िए।

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