एक दौर था जब “हाथी मेरे साथी” जैसी फ़िल्में बनती थीं। आज बिलकुल नहीं बनती ऐसा नहीं है, हाल में विद्युत् जामवाल वाली एक फिल्म में हाथी दिखे थे। इस मामले में विदेशों से आई “ओंग बेक” जैसी फ़िल्में कहीं बेहतर लगती हैं। अपने हाथी के साथ साथ दूसरे दर्जनों हाथियों को बचाने के लिए उसमें नायक जमीन-आसमान एक किये दिखता है। अब जब पर्यावरण दिवस बीत चुका है तो फिर से हाथियों की बात की जानी चाहिए। उनके वनों में होने का मतलब है कि वन स्वस्थ है। अगर नहीं होता तो फिर वहाँ हाथियों के लायक आहार कहाँ से होता? जिन वनों में हाथी होंगे, निश्चित रूप से उसमें वनस्पतियों, पेड़-पौधों की ही नहीं, पानी के स्रोतों की भी भरमार होगी।
एशिया के अलावा हाथी अफ्रीका में भी पाए जाते हैं। दोनों हाथियों में अंतर की बात की जाये तो अफ़्रीकी हाथियों के कान और दांत काफी बड़े नजर आते हैं। उसकी तुलना में भारतीय हाथियों के कान और दांत थोड़े छोटे दिखते हैं। समानता की बात की जाए तो जैसे भारत में वीरप्पन जैसे डाकू इनका अवैध शिकार करते रहे, वैसे ही अफ्रीका में भी इनका शिकार जमकर होता है। हाथियों की आबादी बढ़ गयी है, ऐसा कहकर वहाँ कभी कभी पूरे पूरे झुंडों का भी शिकार किया जाता है। पूरे झुण्ड को मार डालने के लिए लिए अंग्रेजी में “Culling” शब्द होता है, ये हमें एक डेढ़ दशक पहले पता चला था। इसका पता इसलिए चल पाया क्योंकि हम विल्बर स्मिथ की “एलीफैंट सोंग” पढ़ रहे थे।
ये एक रोमांचक उपन्यास है जो अफ्रीका के जंगलों में हाथियों के शिकार से शुरू होकर लन्दन तक ऐसे शिकार से जुड़ी चीजों की बिक्री तक पर आधारित है। अब जब प्लस टू की परीक्षाएं भी रद्द हो गयी हैं और CAT, GRE जैसी परीक्षाओं की तैयारी करने वाले नौजवान भी परीक्षाओं के लिए “कॉम्प्रिहेंशन स्किल” बढ़ाने की सोच रहे होंगे तो उस लिहाज से भी भी ये किताब महत्वपूर्ण हो जाती है। सीधे-सीधे पर्यावरण के मुद्दे पर पढ़ना थोड़ा उबाऊ हो सकता है, लेकिन ये छह सौ पन्ने का उपन्यास बोरिंग तो बिलकुल नहीं है। ऐसे मुद्दों पर विल्बर स्मिथ ने कई किताबें लिखी हैं, लेकिन बाकी की तुलना में “एलीफैंट सोंग” सबसे अच्छी होती है, तो शुरुआत इसी से की जानी चाहिए।
इसकी कहानी एक प्रसिद्ध पर्यावरणविद के जिम्बावे में हाथियों के झुण्ड को मारे जाने की शूटिंग से शुरू होती है। दूसरी तरफ मानवशास्त्री (एन्थ्रोपोलोगिस्ट) केली का सामना बड़े व्यापारिक संगठनों से होता है जो लन्दन में बैठे हैं, मगर उनकी हरकतों से अफ्रीका का पर्यावरण बर्बाद हो रहा होता है। कुल मिलाकर ये कहानी मनुष्य के लालच की कहानी है। मानव का हाथ भस्मासुर की तरह कैसे जंगलों और जीव-जंतुओं को भस्म करता जा रहा है, उसे आधार बनाकर ऐसी कहानियां हिंदी में नहीं लिखी गयीं। इसका अनुवाद आता है या नहीं, पता नहीं। आता भी हो तो हिंदी अनुवाद अक्सर उतना अच्छा नहीं होता है। अगर अंग्रेजी पढ़ सकते हों, तो इसे अंग्रेजी में ही पढ़िए। छह सौ पन्ने लम्बे जरूर होते हैं, लेकिन ये किताब कब शुरू हुई और कब खत्म हुई, पता नहीं चलेगा।