राष्ट्र भक्ति के जज्बे एवं आध्यात्म में रची बसी राजमाता विजयाराजे सिंधिया ने राजघराने की आराम भरी जिंदगी को न अपनाकर समाजसेवा की कठिन राह को अपना जीवन जीने के लिए चुना था। इस दृष्टि से आप इंदौर की महारानी अहिल्यादेवी होलकर के समकक्ष मानी जाती हैं। वैसे भी, भारतीय संस्कृति का पालन करते हुए अपनी राज्य सत्ता को जनता के हित में सफलतापूर्वक चलाने के सिलसिले में भारत का इतिहास कई सफल नेत्रियों एवं महारानियों से भरा पड़ा है। इसी कड़ी में ग्वालियर राजघराने की राजमाता विजयाराजे सिंधिया का नाम भी बहुत गर्व के साथ लिया जाता है। देश के खंडकाल एवं परिस्थितियों के अंतर्गत आपको ग्वालियर राज्य पर सीधे सीधे महारानी के रूप में राज करने का अवसर तो प्राप्त नहीं हुआ परंतु अपने कृत्यों के बल पर ग्वालियर रियासत की जनता के दिलों पर जरूर आपने राज किया। इसके पहिले राजमाता विजयाराजे जैसा इतना बड़ा व्यक्तित्व यहां की जनता ने अपनी आंखो से कभी देखा ही नहीं था। राजमाता विजयाराजे सिंधिया में धार्मिक प्रवृत्ति का व्यक्तित्व विकसित हो गया था एवं आप सनातनी हिंदुत्वनिष्ठ राजमाता के रूप में विख्यात हुईं। कई मंदिरों एवं मठों में शास्त्रों के मनन, चिंतन और प्रवचनों के उद्देश्य से आप संत महात्माओं को सक्रिय रूप से आमंत्रित करती रहीं। आप स्वभाव से बेहद संवेदनशील एवं धर्मपरायण थीं। आप अपने पूरे जीवनकाल में जनता के बीच बेहद सम्माननीय एवं लोकप्रिय रहीं। आज आपको केवल पुरानी ग्वालियर रियासत के क्षेत्र में ही नहीं बल्कि पूरे देश में ही “राजमाता” के नाम से पुकारा जाता है।
“राजमाता” विजयाराजे सिंधिया ने अपने पूरे जीवनकाल का बहुत लम्बा समय देश में राष्ट्रीयता की भावना जगाने, नागरिकों में “स्व” का भाव जगाने एवं हमारी महान भारतीय संस्कृति को भारत की जनता के बीच पुनर्जीवित करने के प्रयास में लगाया था। रामजन्म भूमि अभियान की आप सम्माननीय मार्गदर्शक एवं सक्रिय सदस्य रहीं। साथ ही, देश से धारा 370 को हटाने के लिए भी आप भरसक प्रयास करती रहीं। आज आप हमारे बीच नहीं हैं परंतु आपके सदप्रयासों से ही आपके उक्त दोनों सपने आज पूरे हो गए हैं।
“राजमाता” विजयाराजे ने एक पुस्तक में लिखा है – “एक दिन ये शरीर यहीं रह जाएगा, आत्मा जहां से आई है वहीं चली जाएगी.. शून्य से शून्य में। स्मृतियां रह जाएंगी। अपनी इन स्मृतियों को मैं उनके लिए छोड़ जाऊंगी जिनसे मेरा सरोकार रहा है, जिनकी मैं सरोकार रही हूं।” आपने अपनी मानव काया का त्याग ग्वालियर में दिनांक 25 जनवरी 2001 को किया था।
“राजमाता” विजयाराजे सिंधिया का जीवन समाज के हर वर्ग के लिए प्रेरणाप्रद है। आपकी महानता और सम्मान में भारत के लोकप्रिय प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने आपके जन्म शताब्दी समारोह के उपलक्ष में दिनांक 12 अक्टोबर 2020 को एक 100 रुपए का विशेष स्मारक सिक्का जारी किया था, जिस पर राजमाता विजयाराजे सिंधिया का चित्र अंकित है। इस प्रकार, आपको भारत के इतिहास में अमर कर दिया गया है।
“राजमाता” विजयाराजे सिंधिया का जन्म 12 अक्टोबर 1919 को मध्य प्रदेश के सागर जिले में हुआ था। आपके बचपन का नाम लेखा देवेश्वरी देवी था। आप अपने पिता श्री ठाकुर महेंद्र सिंह राणा एवं माता श्रीमती चूड़ा देवेश्वरी देवी की सबसे बड़ी संतान थीं। आपके पिता जालौन जिले के डिप्टी कलेक्टर थे। आपकी माता नेपाली सेना के पूर्व कमांडर-इन-चीफ जनरल राजा खड्ग शमशेर जंग बहादुर राणा की बेटी थीं, जो नेपाल के राणा वंश के संस्थापक, जंग बहादुर कुंवर राणा के भतीजे थे। इस प्रकार आपको नेपाली राणा वंश के साथ भी जोड़कर देखा जाता रहा है।
“राजमाता” विजयाराजे सिंधिया का विवाह ग्वालियर राजघराने के अंतिम शासक श्रीमंत जीवाजीराव सिंधिया के साथ 21 फरवरी 1941 में सम्पन्न हुआ था। आपकी चार संताने थीं। श्रीमती पद्मावतीराजे ‘अक्कासाहेब’ बर्मन (1942-64), जिनका विवाह त्रिपुरा के अंतिम शासक महाराजा श्री किरीट बिकरम किशोर देब बर्मन से हुआ था। श्रीमती पद्मा का निधन पिता श्री जीवाजीराव सिंधिया के निधन के तीन वर्ष बाद ही हो गया। श्रीमती उषाराजे राणा (जन्म 1943), जिन्होंने श्री पशुपति शमशेर जंग बहादुर राणा से विवाह किया, जो राणा वंश से संबंधित एक नेपाली राजनेता थे। श्री माधवराव सिंधिया (1945-2001), जो भारतीय राजनेता एवं ग्वालियर के दशमांश महाराजा थे। आप श्री ज्योतिरादित्य सिंधिया के पिता हैं। श्रीमती वसुंधराराजे (जन्म 1953) आज भाजपा की राजनेता हैं और राजस्थान की दो बार मुख्यमंत्री रह चुकीं हैं। श्रीमती यशोधरा राजे (जन्म 1954) भी आज भाजपा की नेत्री हैं एवं मध्यप्रदेश सरकार में मंत्री हैं।
“राजमाता” श्रीमती विजयाराजे सिंधिया हालांकि सामान्य परिवार से थीं परंतु उन्होंने राजघराने में हुई अपनी शादी के बाद राजघराने के तौर तरीके बहुत जल्दी अपना लिए थे एवं ग्वालियर रियासत में आप इतनी लोकप्रिय हो गई थीं कि आपको “राजमाता” के नाम से ही पुकारा जाने लगा था। वर्ष 1947 में भारत में स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात आप भारतीय राजनीति में सक्रिय हो गईं थीं एवं वर्ष 1957 में दूसरी लोकसभा के लिए सांसद के रूप में चुनी गईं थीं। वर्ष 1962, 1971, 1989 एवं 1991 में आप पुनः क्रमशः तीसरी, पांचवीं, नौंवी एवं दसवीं लोकसभा के लिए सांसद के रूप में चुनी गईं थीं। वर्ष 1967 में आप मध्यप्रदेश विधान सभा की सदस्य रहीं एवं वर्ष 1978 में राज्यसभा सांसद रहीं।
भारत के प्रधानमंत्री माननीय नरेन्द्र मोदी जी ने 12 अक्टोबर 2020 को 100 रुपए का विशेष स्मारक सिक्का जारी करते समय राजमाता विजयाराजे सिंधिया को अपने श्रद्धा सुमन अर्पित करते हुए कहा था कि पिछली शताब्दी में भारत को दिशा देने वाले कुछ एक व्यक्तित्वों में राजमाता विजयाराजे सिंधिया भी शामिल थीं। राजमाता केवल वात्सल्यमूर्ति ही नहीं थीं, वो एक निर्णायक नेता थीं और कुशल प्रशासक भी थीं। स्वतंत्रता आंदोलन से लेकर आजादी के इतने दशकों तक, भारतीय राजनीति के हर अहम पड़ाव की वो साक्षी रहीं। आजादी से पहले विदेशी वस्त्रों की होली जलाने से लेकर आपातकाल और राम मंदिर आंदोलन तक, राजमाता के अनुभवों का व्यापक विस्तार रहा है। आज यह बहुत जरूरी है कि राजमाता की जीवन यात्रा को, उनके जीवन संदेश को देश की आज की पीढ़ी भी जाने, उनसे प्रेरणा ले, उनसे सीखे। इसलिए उनके बारे में, उनके अनुभवों के बारे में बार-बार बात करना आवश्यक है।
राजमाता ने ये साबित किया था कि जनप्रतिनिधि के लिए राजसत्ता नहीं, जनसेवा सबसे महत्वपूर्ण है। वो एक राजपरिवार की महारानी थीं, राजशाही परम्परा से थीं, लेकिन उन्होंने संघर्ष लोकतंत्र की रक्षा के लिए किया। जीवन का महत्वपूर्ण कालखंड जेल में बिताया। राष्ट्र के भविष्य के लिए राजमाता ने अपना वर्तमान समर्पित कर दिया था। देश की भावी पीढ़ी के लिए उन्होंने अपना हर सुख त्याग दिया था। राजमाता ने पद और प्रतिष्ठा के लिए न जीवन जीया, न कभी उन्होंने राजनीति का रास्ता चुना। ऐसे कई मौके आए जब पद उनके पास तक सामने से चल करके आए। लेकिन उन्होंने उसे विनम्रता के साथ ठुकरा दिया। एक बार खुद अटल बिहारी वाजपेयी जी और लालकृष्ण आडवाणी जी ने उनसे बहुत आग्रह किया था कि वो जनसंघ की अध्यक्ष बन जाएं। लेकिन उन्होंने एक कार्यकर्ता के रूप में ही जनसंघ की सेवा करना स्वीकार किया। अगर राजमाताजी चाहती तो उनके लिए बड़े से बड़े पद तक पहुंचना मुश्किल नहीं था। लेकिन उन्होंने लोगों के बीच रहकर, गांव और गरीब से जुड़े रहकर उनकी सेवा करना पसंद किया।
राजमाता के जीवन में अध्यात्म का अधिष्ठान था। आध्यात्मिकता के साथ उनका जुड़ाव था। साधना, उपासना, भक्ति उनके अन्तर्मन में रची बसी थी। लेकिन जब वो भगवान की उपासना करती थीं, तो उनके पूजा मंदिर में एक चित्र भारत माता का भी होता था। भारत माता की उपासना भी उनके लिए वैसी ही आस्था का विषय था।