आइये याद्दाश्त पर थोड़ा सा जोर डालते हैं और उस दौर में चलते हैं जब बर्तन धोने के लिए स्कॉच ब्राइट शायद ही कहीं दिखता था। नारियल के छिलके के अलावा तब एक और चीज़ थी, जो बर्तन धोने में काम आती थी। तोरई जैसी सब्जियों में से सबसे अच्छे वाले को बीज के लिए बचा लिया जाता था। उसका खोल भी बर्तन धोने के काम में आता था। थोड़े दिन पहले (दिवंगत) मनोहर पार्रिकर के नाम से इन्टरनेट पर दौड़ते-भागते एक किस्से में भी ऐसा ही होता था। ये कहानी सचमुच उन्होंने सुनाई थी या नहीं, पता नहीं लेकिन तरबूजों का ये किस्सा रोचक था।
उनके मुताबिक किसी किसान के पास बहुत बड़े बड़े तरबूज होते थे और वो तरबूज खाने की प्रतियोगिता आयोजित करवाया करता था। बचपन में पार्रिकर भी उस प्रतियोगिता में शायद भाग लेते थे और किसान के बड़े बड़े तरबूज देखकर प्रभावित होते। कुछ साल के लिए वो बाहर गए और जब लौटे, तो उन्होंने पाया कि उस किसान की मृत्यु हो चुकी है। तरबूज खाने की प्रतियोगिता अब उनका बेटा आयोजित करवाता है, मगर अब तरबूज उतने बड़े नहीं होते। साधारण, बाजारों में मिलने वाले आम तरबूज जितने ही होते हैं।
उन्होंने कारण ढूँढने की कोशिश की तो पता चला किसान सबसे बड़े तरबूजों को प्रतियोगिता में रखता था और उनके बीज एक जगह जमा करने की शर्त होती। इस तरीके से साल दर साल उसके पास सबसे बड़े तरबूज के बीज होते और इससे उसके तरबूजों का आकार बढ़ता जाता। किसान के बेटे ने जब काम संभाला तो उसने बड़े वाले तरबूज बेचने शुरू किये और छोटे वाले प्रतियोगिता में रखने लगा। अब उसके पास बीज भी छोटे तरबूजों के ही आते। थोड़े ही साल में उसके तरबूजों का आकार भी घटकर आम तरबूजों जैसा हो गया, कुछ ख़ास नहीं रहा।
बीजों को बचाने और अगले साल के लिए सहेजना किसानों के लिए आम बात है। एक दो पीढ़ी पहले तक गृहणियां भी ऐसा करती दिख जातीं। सबसे बड़ी वाली लौकी के बीज, बड़े खिलने वाले गेंदा के फूलों के बीज, अड़हुल-कनेल के पौधे, ये सब अक्सर गृहणियां जुटा लेतीं। सही मौसम आने पर उन्हें रोपा जाता। कुछ घर की शोभा भी बढ़ती और काफी हद तक पड़ोसियों की मदद भी की जाती। ऐसा करने के प्रयास में हर फल-सब्जी का सही मौसम पता चल जाता था। लोग पेड़ों को भी पहचानते थे। किस कटहल की सब्जी बेहतर होगी, किस पेड़ का फल पकने देना है, ये पीढ़ी-दर-पीढ़ी पता चलता रहता।
आजादी के बाद सेक्युलर होने लगे भारत में ऐसे परंपरागत ज्ञान को ओछा माना जाने लगा। छिलके की जगह जैसे-जैसे स्कॉच ब्राइट ने ली वैसे-वैसे ये जानकारी भी गायब होने लगी। दूर दिल्ली में बैठकर योजना बनाने वालों ने स्थानीय सोचने की जरुरत नहीं समझी। वृक्षों में भी अभिजात्य बिरादरी और हाशिये पर धकेला गया वर्ग होने लगा। जब पेड़ों के नाम पर सरकार बहादुर ने सफेदा और गुलमोहर लगाने की सोची तो साहित्य भी उसके पीछे-पीछे चला। कविताओं में से “कदम्ब का पेड़” गायब हो गया और रोमांस में गुलमोहर के लाल-पीले फूल खिलने लगे।
दौर बदलने के साथ अब जब सरकारों पर जनता उचित दबाव बनाने लगी है, तो ये भी एक ऐसा मसला है जिसपर ध्यान दिया जाना चाहिए। पेड़ लगाने वाले आम नागरिकों को पद्म पुरस्कारों से सम्मानित किया जाना अच्छी बात तो है, लेकिन इतने भर से बात नहीं बनती। इण्डिया में बेमौसम मनाये जाने वाले “पर्यावरण दिवस” का भारत में कोई मतलब नहीं होता। इस समय इंडिया के बड़े-बड़े हाल या पांच सितारा में जो सेमिनार होते हैं, उनमें चलने वाले एसी से पर्यावरण का और नुकसान ही होता है। उनमें इस्तेमाल होने वाली एलिट क्लास की प्लास्टिक की बोतलें भी कूड़े के निष्पादन का बोझ बढ़ाती हैं। इंडिया में होने वाले ऐसे आयोजनों के बाद भारत में जो पेड़ लगाए जाते हैं, वो इस मौसम में कितना टिकेंगे ये भी एक सवाल है।
बाकी इंडिया में इस समय पर्यावरण दिवस मनाना ही है, तो भारत के तालाबों की सफाई या उन्हें गहरा इत्यादि करवाने का काम करने के लिए ये मौसम ठीक होगा। इंडिया को भारत के परंपरागत तालाबों-पोखरों को खाना पचाना भी बंद करना चाहिए।